दिल में कुछ सोज़-ए-तमन्ना के निशाँ मिलते हैं इस अंधेरे में उजाले के समाँ मिलते हैं आज भी रंग-ए-बयाबाँ के तपिश-जारों में लड़खड़ाते हुए क़दमों के निशाँ मिलते हैं हाँ इसी मंज़िल-ए-सद-कैफ़-ओ-तरब की जानिब क़ाफ़िले आज भी आशिक़ के रवाँ मिलते हैं ऐ गिरे हम-सफ़रो इस को तो मंज़िल न कहो आँधियाँ उठती हैं तूफ़ान यहाँ मिलते हैं उन के हर वादा-ए-अल्ताफ़ की रंगीनी में कितने ना-दीदा सितम-हा-ए-गिराँ मिलते हैं उस की महफ़िल में वो बहके हुए सीमीं नगमें अब तो कुछ दिन से ब-अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ मिलते हैं यूँ गवारा है ये ख़ूँ-बार उफ़ुक़ का मंज़र इस के परतव में हमें ताज़ा जहाँ मिलते हैं