दिल-ओ-दिमाग़ को तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे मिरे सवालों का आख़िर कोई जवाब तो दे पिघल न जाए कहीं आँच से तू क़ुर्बत की बढ़ा के फ़ासले कुछ रंग-ए-इज्तिनाब तो दे तसव्वुरात में रौशन हो चाँद सा चेहरा शब-ए-सियाह की आँखों में नूर-ए-ख़्वाब तो दे सजा बना हुआ चेहरा शरारती आँखें जगा रही हैं ये फ़ित्ने इन्हें हिजाब तो दे शुमार करता है ग़ैरों के ही गुनाहों को कभी तू अपनी ख़ताओं का भी हिसाब तो दे हमेशा ख़ार निगाहों से देखता है मुझे कभी ज़बान से खिलते हुए गुलाब तो दे हर इक वर्क़ पे रक़म नफ़रतें मिलीं हम को कभी ज़बान से खिलते हुए गुलाब तो दे शुआ'-ए-इल्म से रौशन 'शरर' है ये दुनिया ज़वाल जिस को न हो ऐसा आफ़्ताब तो दे