दिल ओ नज़र में तिरे रूप को बसाता हुआ तिरी गली से गुज़रता हूँ जगमगाता हुआ ग़ज़ल के फूल मिरे ज़ेहन में महकते हुए तिरा ख़याल मुझे रात भर जगाता हुआ वो बारगाह-ए-अदब है अक़ीदतों की जगह मैं उस गली से क्यूँ गुज़रूँगा ख़ाक उड़ाता हुआ मिरे जुनूँ से हरीफ़ों के पाँव उखड़ते हुए मैं जान देने के चक्कर में जाँ बचाता हुआ किसे मिला तिरे क़दमों में जान दे देना मैं सुर्ख़-रू हुआ चाहत के काम आता हुआ तुम्हारी याद मुझे इस तरह से लगती है कोई चराग़ अंधेरे में झिलमिलाता हुआ हथेलियों की लकीरें मुझे परखती हुईं मैं हर क़दम पे मुक़द्दर को आज़माता हुआ जवाब क्यूँ हैं सभी ख़ामोशी में दुबके हुए सवाल ज़ेहन के आँगन में आता जाता हुआ मिरे ख़िलाफ़ सभी साज़िशें रचीं जिस ने वो रो रहा है मिरी दास्ताँ सुनाता हुआ हमारी सम्त लगातार वार होते हुए उसे बचाने में अक्सर मैं चोट खाता हुआ