दिल पर लगा रही है वो नीची निगाह चोट फिर चोट भी वो चोट जो है बे-पनाह चोट फोड़ा सर उस के दर से कि बरसे जुनूँ में संग मुझ को दिला रही है अजब इश्तिबाह चोट बिजली का नाम सुनते ही आँखें झपक गईं रोकेगी मेरी आह की क्या ये निगाह चोट लालच असर का हो न कहीं बाइस-ए-ज़रर टकरा के सर फ़लक से न खा जाए आह चोट मुँह हर दहान-ए-ज़ख़्म का सीते हैं इस लिए मतलब है हश्र में भी न हो दाद-ख़्वाह चोट मिलती है चुप की दाद ये मशहूर बात है जल जाए आसमाँ जो करे ज़ब्त आह चोट उठते ही दिल में टीस जिगर में टपक हुई करती है दर्द-ए-हिज्र से गोया निबाह चोट चौखट पे तेरी शब को पटकता है सर 'हफ़ीज़' बावर न हो तो देख जबीन है गवाह चोट