दिल पर निगाह-ए-नाज़ का जादू जो चल गया वो सरहद-ए-शुऊ'र से आगे निकल गया छत पर मिरी उतरती नहीं धूप आज-कल सूरज मिरे ख़िलाफ़ कोई चाल चल गया लोगों ने मुझ को अपनी नज़र से गिरा दिया जिस दिन से मैं ख़ुलूस के साँचे में ढल गया क्यों हँसते हँसते आँख से आँसू निकल पड़े क्यों यक-ब-यक बहार का मौसम बदल गया गौहर जिसे समझते थे सब लोग शहर में परखा गया उसे तो वो पत्थर निकल गया आई थी बन के आग मिरे वास्ते बहार जिस फूल को भी मैं ने छुआ हाथ जल गया सच बोलता नहीं है कोई शख़्स आज-कल देखा जो मेरा हश्र ज़माना सँभल गया रखते थे फूँक फूँक के जब अपना हर क़दम रस्ते में कैसे पाँव तुम्हारा फिसल गया उम्मीद जिन से अम्न की बारिश की थी 'क़मर' उन बादलों को वक़्त का सूरज निगल गया