दिल रवाँ जिस का हो इक मुर्शिद-ए-कामिल की तरफ़

दिल रवाँ जिस का हो इक मुर्शिद-ए-कामिल की तरफ़
कौन रोकेगा उसे जाने से मंज़िल की तरफ़

चाह कर भी न अगर ग़म का मुदावा हो तो फिर
मैं चली जाती हूँ ईमान-ए-मुफ़स्सल की तरफ़

ये मिरी माँ की दुआ का ही समर है जो मुझे
तुंद लहरों ने उछाला भी तो साहिल की तरफ़

चाहता कौन है राहों में भटक जाना मगर
रास्ता शर का ही ले जाता है जाहिल की तरफ़

ज़ंग जब रूह के औसाफ़ को लगता है तो फिर
धड़कनें दौड़ के जाती हैं नवाफ़िल की तरफ़

दिल मुझे कहता है धक धक की ज़बाँ में ये ही
जंग कर नफ़्स से तू देख न बातिल की तरफ़

'शाज़' हो जाएगा तय ज़ीस्त का बे-नाम सफ़र
देख मत तिश्ना निगाहों से तू महमिल की तरफ़


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