दिल संग नहीं है कि सितमगर न भर आता करते न अगर ज़ब्त तो मुँह तक जिगर आता तू फ़ातिहा-ख़्वानी को अगर क़ब्र पर आता मरने से मिरे ग़ैर का मतलब न बर आता ऐ क़ैस अगर दश्त में तू राह पर आता सौ बार तुझे नाक़ा-ए-लैला नज़र आता तख़सीस न थी तूर की ऐ हज़रत-ए-मूसा हर संग में वो नूर-ए-तजल्ली नज़र आता होती चमन-आरा-ए-अज़ल की जो मशिय्यत अपने शजर-ए-इश्क़ का वक़्त-ए-समर आता बे-कार न कर रात बसर मुंतज़री में आना उसे होता तो वो अब तक 'असर' आता