दिल से पूछो क्या हुआ था और क्यूँ ख़ामोश था आँख महव-ए-दीद थी इतना मुझे बस होश था वो भी क्या तासीर थी जिस ने हिलाए सब के दिल क्या बताऊँ वो मिरा ही नाला-ए-पुर-जोश था महफ़िल-ए-साक़ी में था कुछ और ही मस्तों का रंग कोई साग़र ढूँढता था और कोई बेहोश था क्या अजब है जाएज़ा ले मय-परस्तों का कोई याद रखना साक़िया मुझ सा भी इक मय-नोश था क्या समझ सकता था कोई तेरे दीवाने की चुप जब किसी ने उस से कुछ पूछा तो बस ख़ामोश था बे-ख़ुदी से नश्शा-ए-जाम-ए-ख़ुदी उतरा तो फिर एक ही साग़र मिला ऐसा कि मैं मदहोश था इक हमीं को साक़िया पूछा न तू ने दौर मैं वर्ना मय-ख़ाने में तेरे शोर नोशा-नोश था किस क़दर था इश्तियाक़-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद उसे मरने वाले का जनाज़ा आज दोशा-दोश था ज़िंदगी-भर के गुनाहों से ये थी शरम ऐ अजल तारिक-ए-हस्ती यहाँ से जब चला रू-पोश था ग़ुंचे क्यूँ ख़ामोश आए गुलशन-ए-हस्ती में 'शौक़' मौसम-ए-गुल से मगर ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ हम-दोश था