दिल से समझूँगा इसे दुश्मन-ए-जाँ होने दो ज़हर घोलूँगा दवा में ख़फ़क़ाँ होने दो आँख भौं उस के इशारों पे रवाँ होने दो मिल के अबरू-ओ-मिज़ा तीर-ओ-कमाँ होने दो मेरे दिल को हदफ़-ए-तीर-ए-निगह करते हैं और मुझ से भी इशारा है कि हाँ होने दो आग भड़की हुई है मुझ को न समझाए कोई जान का माल का होता है ज़ियाँ होने दो हर तरह हम दिल-ए-ना-फ़हम को समझा लेंगे दाग़ मौजूद हैं पहलू को ख़िज़ाँ होने दो इस्म-ए-आज़म का असर ग़ैर को दिखला देंगे यार का नाम ज़रा विर्द-ए-ज़बाँ होने दो आँखें फूटें भी कहीं इस फ़लक-ए-बद-बीं की ज़ब्त अच्छा नहीं आहों का धुआँ होने दो पर्दा डालो मिरी आँखों पे न ऐ शर्म-ओ-हिजाब यार बे-पर्दा है मुझ को निगराँ होने दो रात बाक़ी है अभी किस लिए घबरा के उठे तोप छुटने दो मिरी जान अज़ाँ होने दो लखनऊ में तुम्हें दिखलाएँगे चौका बहते चार आँसू मिरी आँखों से रवाँ होने दो देखूँ क्यूँ कर नहीं होता फ़लक-ए-कज सीधा दिल-ए-महज़ूँ की बुलंद आह-ओ-फ़ुग़ाँ होने दो अहल-ए-दुनिया में मोअस्सिर है हर एक शय का रिवाज मस्त हो जाएँगे सब दौर-ए-मुग़ाँ होने दो नौजवानी का मज़ा कोई ख़राबात में है मर्दुम-ए-पीर को मुश्ताक़-ए-जिनाँ होने दो आज़माइश के नज़र ही जो हमारे जानिब पार सीने से निगाहों की सिनाँ होने दो 'बहर' ने अब तो कमर बाँधी ही बद-वज़ई' पर अब न रोको इसे रुस्वा-ए-जहाँ होने दो