दिल से तुम्हारी याद भुलाने चला हूँ मैं लौ और शम-ए-ग़म की बढ़ाने चला हूँ मैं बेहतर वो मौत है जो मिले ज़िंदगी से दूर वीरानियों में ख़ुद को लुटाने चला हूँ मैं बेकार ज़िंदगी ये ख़लिश के बग़ैर थी हाथ अपना हादसों से मिलाने चला हूँ मैं फिर डूबने चला हूँ किसी की निगाह में फिर होश खो के होश में आने चला हूँ मैं शमएँ जला के आरज़ूओं के मज़ार पर बर्बादियों का जश्न मनाने चला हूँ मैं नाकाम हसरतों के जनाज़े लिए हुए दुनिया को अपने ज़ख़्म दिखाने चला हूँ मैं ठुकरा के आज सारे सहारों को ऐ 'शफ़ीक़' ख़ुद अपनी बिगड़ी आप बनाने चला हूँ मैं