दिल तक हो चाक तेग़ जो सर पर लगाइए आशिक़ हूँ हाथ सोच-समझ कर लगाइए चेहरे पे नाज़ुकी से न आए कहीं गज़ंद रुख़्सार से न आप गुल-ए-तर लगाइए साक़ी के लुत्फ़-ए-ख़ास की तअ'ज़ीम है ज़रूर आँखों से जाम-ए-बादा-ए-अहमर लगाइए है जी में बहर-ए-नूर-ए-निगह उस की ख़ाक-ए-पा सुर्मा की जा अगर हो मयस्सर लगाइए ये दिल में है कि छोड़ के 'रौनक़' जहान को कूचे में उस निगार के बिस्तर लगाइए