दिल-ए-बे-ताब को कब वस्ल का यारा होता शादी-ए-दौलत-ए-दीदार ने मारा होता शब-ए-ग़म ज़हर ही खाने का मज़ा था वर्ना इंतिज़ार-ए-सहर-ए-वस्ल ने मारा होता शब-ए-हिज्राँ की बला टाले नहीं टलती है भोर कर देते अगर ज़ोर हमारा होता आई जिस शान से मदफ़न में सवारी मेरी देखते ग़ैर तो मरना ही गवारा होता क्यूँ न सीने से लगी रहती अमानत तेरी दाग़-ए-दिल क्यूँ न हमें जान से प्यारा होता सर झुकाए तिरी उम्मीद पे बैठे हैं हम क़ातिल इस बार अमानत को उतारा होता एक हो जाती अभी काफ़िर-ओ-दीं-दार की राह अगर उन जुट्टी भुवों का इक इशारा होता भीगती जाती है रात और अभी सोहबत है गर्म जाम लब-रेज़ इसी आलम में हमारा होता निगह-ए-लुत्फ़ से महरूम हूँ अब तक साक़ी सफ़-ए-आख़िर की तरफ़ भी इक इशारा होता दूर से साग़र-ओ-मीना को खड़ा तकता हूँ दिल कोई रखता तो मुझ को भी पुकारा होता दूर इतनी न कभी खिंचती अदम की मंज़िल काश कुछ नक़्श-ए-क़दम ही का सहारा होता यास अब आप कहाँ और कहाँ बाँग-ए-जरस कौन इस वादी-ए-ग़ुर्बत में तुम्हारा होता देखते रह गए 'यास' आप ने अच्छा न किया डूबते वक़्त किसी को तो पुकारा होता सूरत-ए-ज़ाहिरी इक पर्दा-ए-तारीक थी 'यास' हुस्न-ए-मा'नी का कन-आँखियों से नज़ारा होता