दिल-ए-ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा को सनमा जला न चंदाँ कि फ़लक के पार पहुँचे तफ़-ए-आह-ए-दर्द-मंदाँ कहें क्या कि देखते हैं तुझे ग़ैर साथ ख़ंदाँ रहे होंट हो चबाते ब-जिगर-फ़शुर्दा-दंदाँ वहीं झड़-गुलों के तूदे बंधें गुलबनों के नीचे कभू सुब्ह-दम चमन में जो वो ग़ुंचा-लब हो ख़ंदाँ कहो क्या बरार-सोहबत मिरी उस की हो अज़ीज़ाँ दिल-ए-नाज़ुक अपना शीशा दिल-ए-संग उस का संदाँ न बचेगा सैद उन से कोई आहु-ए-हरम तक जो रहे शिकार-अफ़्गन यही अम्बरीं-कमंदाँ कभू रंग से हिना के सर-ए-दस्त-ओ-पा निगारीं न सिवा-ए-ख़ून-ए-आशिक़ करें ये निगार-बंदाँ न हो ग़ैर साथ हर-दम मुतबस्सिम ऐ परी-वश न नमक-फ़िशाँ हो दिल के सर-ए-रीश मुस्तमिन्दाँ किए शाना रीश को याँ अबस आए शैख़ जी तुम कि ये जम-ए-बज़्म-ए-रिंदाँ है फ़रीक़-ए-रीश-ख़ंदाँ नहीं फ़ाल लब पे उस के ये है मेहर ख़ामुशी की वही समझे है ये नुक्ता कि जो है बड़ा सुख़न-दाँ कहीं सर्व से मुशाबह तेरे क़द को पस्त-फ़ितरत ये है गोश-ज़द हमारे सुख़न-ए-नज़र-बुलंदाँ सभी महव-ए-ख़ुद-नुमाई ब-मिसाल-ए-आइना हैं ये ख़ुदाई से निराला है गिरोह-ए-ख़ुद-पसंदाँ तिरी वस्फ़ का कमर के न बँधा किसी से मज़मूँ रहे ख़्वाब में अदम तक जो कई ख़याल बंदाँ 'मुहिब' इस अदा के सदक़े कि उठाए मार ठोकर सर-ए-पा-ए-नाज़नीं से वो सर-ए-नियाज़-मंदाँ