दिल-ए-तन्हा में अब एहसास-ए-महरूमी नहीं शायद तिरी दूरी भी अब दिल के लिए दूरी नहीं शायद जहाँ दिन में अंधेरा हो वहाँ रातों का क्या कहना यहाँ के चाँद सूरज में चमक होती नहीं शायद मैं जब बिस्तर से उठता हूँ तो यूँ महसूस होता है मिरे अंदर की दुनिया रात भर सोती नहीं शायद ये किस सहरा के किस गोशे में ख़ेमा तान बैठे हैं किसी भी सम्त कोई रहगुज़र जाती नहीं शायद हम अपनी ज़िंदगी की धूप में तपने के आदी हैं हमें ठंडी हवा बरसों से रास आती नहीं शायद 'हबीब' इस ज़िंदगी के पेच-ओ-ख़म से हम भी नालाँ हैं हमें झूटे नगीनों की चमक भाती नहीं शायद