दिल-ओ-दिमाग़ की ज़िद है कि अपने घर में रहो मिज़ाज कहता है हर वक़्त इक सफ़र में रहो वजूद कुछ न रहे सिर्फ़ इस तरह हो जाओ रहो तो ऐसे कि हर लम्हा हर नज़र में रहो झुलस रहे हैं कई जिस्म साएबानों में किस ए'तिबार पे फिर साया-ए-शजर में रहो किसी दरख़्त से माँगो न साए की ख़ैरात नबर्द-आज़मा सूरज से दोपहर में रहो दिल-ए-'शरर' में नहीं कुछ भी तजरबों के सिवा जो रहना है तो तमाज़त बनो शरर में रहो