दिलों की बात नज़र से कही नहीं जाती कही भी जाए तो शायद सुनी नहीं जाती किसी के तर्क-ए-मोहब्बत के बा'द भी ऐ दोस्त ख़ुलूस-ए-इश्क़ की शाइस्तगी नहीं जाती कभी कभी तो नज़र के भी दीप बुझते हैं चराग़-ए-दिल की मगर रौशनी नहीं जाती है इतना आम यहाँ अपनी रौशनी का चलन शबों के ज़ेहनों से क्यों तीरगी नहीं जाती इक उम्र कट गई समझौता हो गया फिर भी मिज़ाज-ए-दोस्त तिरी बे-रुख़ी नहीं जाती ये सच है प्यास निगाहों की बुझ तो जाती है दिलों की 'नाज़' मगर तिश्नगी नहीं जाती