दिल-ओ-नज़र में न पैदा हुई शकेबाई किसी के ग़म ने तबीअ'त हज़ार बहलाई तमाम हुस्न-ओ-मोहब्बत तमाम रानाई वो इक निगाह जो पैग़ाम-ए-ज़िंदगी लाई छलक पड़ें न कहीं अश्क मेरी आँखों से किसी के दर्द-ए-मोहब्बत की हो न रुस्वाई ग़म-ए-ज़माना के मारे न रह सके ज़िंदा निगाह-ए-दोस्त ने क्या क्या न की मसीहाई न रुक सकेंगे रह-ए-इश्क़ में जुनूँ के क़दम कि बढ़ रहा है अभी ज़ौक़-ए-आबला-पाई वो जेहद-ए-जामा-दरी है न फ़िक्र-ए-बख़िया-गरी अजीब हाल में हैं आज तेरे सौदाई नज़र पड़ा न कहीं वो ग़ज़ाल-ए-रम-ख़ुर्दा जुनून-ए-शौक़ ने की लाख दश्त-पैमाई मिरी तरह तो तमाशा न बन सका कोई अगरचे एक जहाँ था तिरा तमाशाई क़रीब आ के भी एहसास-ए-बोद मिट न सका कि तेरे हो के भी हम हैं तिरे तमन्नाई जो हिर्स-ओ-आज़ के बंदे हैं उन को क्या मालूम वक़ार-ए-बंदगी-ओ-अज़मत-ए-जबीं-साई हर एक चीज़ जहाँ सीम-ओ-ज़र में तुलती है मिरे ख़ुलूस की क्या हो वहाँ पज़ीराई ये लाला-ओ-गुल-ओ-नसरीं ये अंजुम-ओ-महताब कहाँ नहीं तिरे जल्वों की आलम-आराई मुझे वो अहद वो दिन-रात याद आते हैं कि जब न थी तिरे ग़म से कोई शनासाई शब-ए-फ़िराक़ की बे-ताबियों को क्या कहिए कभी कभी तो मिरे ग़म को भी हँसी आई न रह सका किसी आलम में भी तिरा 'मुज़्तर' कि ग़म हुआ न गवारा ख़ुशी न रास आई