दिन ढला रात फिर आ गई सो रहो सो रहो मंज़िलों छा गई ख़ामुशी सो रहो सो रहो सारा दिन तपते सूरज की गर्मी में जलते रहे ठंडी ठंडी हवा फिर चली सो रहो सो रहो गर्म सुनसान क़रियों की धरती महकने लगी ख़ाक रश्क-ए-इरम बन गई सो रहो सो रहो रज़्म-गाह-ए-जहाँ बन गई जा-ए-अमन-ओ-अमाँ है यही वक़्त की रागनी सो रहो सो रहो कैसे सुनसान हैं आसमाँ चुप खड़े हैं मकाँ है फ़ज़ा अजनबी अजनबी सो रहो सो रहो थक गए नाक़ा ओ सारबाँ थम गए कारवाँ घंटियों की सदा सो गई सो रहो सो रहो चाँदनी और धुएँ के सिवा दूर तक कुछ नहीं सो गई शहर की हर गली सो रहो सो रहो गर्दिश-ए-वक़्त की लोरियाँ रात की रात हैं फिर कहाँ ये हवा ये नमी सो रहो सो रहो सारी बस्ती के लोग इस मधुर लय में खोए गए दूर बजने लगी बाँसुरी सो रहो सो रहो दूर शाख़ों के झुरमुट में जुगनू भी गुम हो गए चाँद में सो गई चाँदनी सो रहो सो रहो घर के दीवार-ओ-दर राह तक तक के शल हो गए अब न आएगा शायद कोई सो रहो सो रहो सुस्त रफ़्तार तारे भी आँखें झपकने लगे ग़म के मारो घड़ी दो घड़ी सो रहो सो रहो मुँह-अँधेरे ही 'नासिर' किसे ढूँडने चल दिए दूर है सुब्ह-ए-रौशन अभी सो रहो सो रहो