दिन गुज़रते हैं जो अंदेशा-ओ-अफ़्कार के साथ दिल धड़कता है मगर रंज-ए-गिराँ-बार के साथ सैंकड़ों बरसों पे फैली हैं हिकायात मगर वाक़िए एक से वाबस्ता हैं तलवार के साथ यूँ तो संगीनी-ओ-बाला-कदी अच्छी है मगर एक साए का तसव्वुर भी है दीवार के साथ अब खला अपनी ही जानिब ये सफ़र है कि यहाँ फ़ासले और बढ़े गर्मी-ए-रफ़्तार के साथ किसी तन्हा से अजब गर्मी-ए-बाज़ार रही एक अम्बोह-ए-तमन्ना था ख़रीदार के साथ