दिन हुआ कट कर गिरा मैं रौशनी की धार से ख़ल्क़ ने देखे लहू में रात के अनवार से उड़ गया काला कबूतर मुड़ गई ख़्वाबों की रौ साया-ए-दीवार ने क्या कह दिया दीवार से जब से दिल अंधा हुआ आँखें खुली रखता हूँ मैं उस पे मरता भी हूँ ग़ाफ़िल भी नहीं घर-बार से ख़ाक पर उड़ती बिखरती पुर्ज़ा पुर्ज़ा आरज़ू याद है ये कुछ हवा की आख़िरी यलग़ार से अब तो बारिश हो ही जानी चाहिए उस ने कहा ताकि बोझ उतरे पुरानी गर्द का अश्जार से इश्क़ तो अब शे'र कहने का बहाना रह गया हर्फ़ को रखता हूँ रौशन शो'ला-ए-अफ़्कार से शहर के नक़्शे से मैं मिट भी चुका कब का 'ज़फ़र' चार-सू लेकिन चमकते हैं मिरे आसार से