दिन किसी सूरत गुज़रता ही नहीं रेत पर चेहरा उभरता ही नहीं जी रहे हैं नफ़रतों के दरमियाँ चेहरा-ए-इम्काँ निखरता ही नहीं ता-अबद जारी रहे रक़्स-ए-जुनूँ घर का सन्नाटा बिखरता ही नहीं देखना क़हत-e-जमाल-ए-ज़िंदगी शहर में कोई सँवरता ही नहीं जाने क्या उस की नज़र ने कर दिया दिल किसी पहलू ठहरता ही नहीं नश्शा-ए-हस्ती के दिन पूरे हुए 'साग़र'-ए-जाँ है कि भरता ही नहीं