दीवार-ओ-दर से दूर हमारा मकान है सर पर हमारे धूप का इक साएबान है यारो ग़म-ए-हयात से बे-ए'तिनाई क्या आया है चंद दिन के लिए मेहमान है कब से उसे रही है ख़रीदार की तलब बाज़ार-ए-ज़िंदगी में जो ग़म की दुकान है क्यों तर्क-ए-आरज़ू के लिए कह रहे हैं आप शायद ये आरज़ू तो मोहब्बत की जान है दीवानगान-ए-इश्क़ का क्या पूछते हो हाल बेहाल हो के भी तो अजब आन-बान है देखें उन्हें तो खींच बुलाता है या नहीं ऐ जज़्ब-ए-शौक़ आज तिरा इम्तिहान है जैसे किसी ख़ला में कहीं जी रहे हैं लोग 'दानिश' ज़मीं है अब न कोई आसमान है