दिया जला भी नहीं जो उसे बुझा दिया जाए हमें भी वक़्त से पहले ही अब सुला दिया जाए यही रज़ा है अगर कातिब-ए-मुक़द्दर की तो जो पनप न सके फिर उसे मिटा दिया जाए रहे न ज़द में किसी भी बदलते मौसम की निहाल-ए-दिल पे वही फूल इक खिला दिया जाए किसी को पाने का एहसास इस तरह से रहे तो बज़्म-ए-दोस्त से दुश्मन को ही उठा दिया जाए फ़लक को छूने की बे-सूद आरज़ू न मिले मैं ख़ाक हूँ तो मुझे ख़ाक में मिला दिया जाए यही मुतालबा 'रज़िया' है आज मुंसिफ़ से हमारे सब्र-ओ-रज़ा का कोई सिला दिया जाए