दिया मुंडेर पे दिल की जला रही हूँ मैं हवा-मिज़ाज को वापस बुला रही हूँ मैं मुझे किसी के भी जाने से दुख नहीं होता न जाने किस लिए आँसू बहा रही हूँ मैं ये तेरी मर्ज़ी कि आए न आए वापस तू निज़ाम-ए-दिल को तो दिल से चला रही हूँ मैं इसी चराग़ से हर सम्त रौशनी होगी जला है दिल तो दिए सब बुझा रही हूँ मैं जो हाथ आज मुझे थामते नहीं हैं 'शबी गए दिनों में तो उन की दुआ रही हूँ मैं