दिए अँधेरों ने बढ़ कर सहारे ख़्वाबों को सिरात-ए-शब से गुज़रते हमारे ख़्वाबों को कुछ और बोझ उठाना भी उन के ज़िम्मे है कोई तो आँखों के सर से उतारे ख़्वाबों को चला गया है जो नींदें बिखेर कर मेरी बुलाऊँ कैसे कि आ कर सँवारे ख़्वाबों को कहीं ख़लाए-ए-अदम में ज़ुहूर-ए-नूर हुआ दिखाई देने लगे हैं नज़ारे ख़्वाबों को कहीं जज़ीरा-ए-इम्काँ कहीं पे ता'बीरें बुला रहे हैं बहुत से किनारे ख़्वाबों को छुड़ा के हाथ हुए रतजगों में गुम ऐसे तलाश करते हैं अब इस्तिख़ारे ख़्वाबों को मिज़ाज उस ने बिगाड़ा है उम्र भर इन का सो अब ये वक़्त की मर्ज़ी सुधारे ख़्वाबों को