दिए भी हों तो पुजारी सूरज के साँस क्या लेंगे तीरगी में कहो पतंगों से रक़्स कर लें चराग़ की धीमी रौशनी में मुआ'फ़ ऐ नाज़-ए-रहनुमाई पहुँच के मंज़िल पे भी न पाई वो लज़्ज़त-ए-ख़्वाब जो मयस्सर हुई सर-ए-राह-ए-ख़स्तगी में वफ़ा को थोड़ी सी बे-नियाज़ी कम-इलतिफ़ाती ने तेरी दे दी अब और क्या चाहिए ख़ुदी को तिरी मोहब्बत की बे-ख़ुदी में छुपी न जब ख़ाक-ए-आस्ताँ से छुपेगी क्या चश्म-ए-नुक्ता-दाँ से वो इक शिकन जो ज़रा सी उभरी जबीन-ए-मजबूर-ए-बंदगी से इधर अँधेरे की लानतें हैं उधर उजाले की ज़हमतें हैं तिरे मुसाफ़िर लगाएँ बिस्तर कहाँ पे सहरा-ए-ज़िंदगी में 'जमील' हम उठ के गिर पड़े और गुज़र गया कारवाँ हमारा ग़ुबार की बात तक न पूछी मुसाफ़िरों ने रवा-रवी में