दो एक साल ही इक से सराही जाती है इसी तरह से हमेशा तू चाही जाती है ''करें न ब्याह, मिलें, सुख सुहाएँ फ़ल्सफ़ा ख़ूब'' तिरे बुज़ुर्गों की सब कज-कुलाही जाती है है तुझ में मुझ से बिगाड़ अब इक और के आगे तिरी सखी तिरी देने गवाही जाती है बिराजे घर में मुझे चाहे तुझ को बहकाए ले तेरी बहन की अब सरबराही जाती है तज़ाद-ए-ज़ात में ज़िलए' अलग वचन बेकार लगन तो त्याग के जीवन निबाही जाती है तिरे सरीर को कैसे मिले सुहाग का सुख तू अपने आप ही दिन रैन ब्याही जाती है दुआ सलाम चला मैं कि मेरे होने से तिरा वक़ार तिरी ख़ुद-निगाही जाती है