दो घड़ी बैठे थे ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं की छाँव में चुभ गया काँटा दिल-ए-हसरत-ज़दा के पाँव में कम नहीं हैं जब कि शहरों में भी कुछ वीरानियाँ किस तवक़्क़ो पर कोई जाएगा अब सहराओं में कच्ची कलियाँ पक्की फ़सलें सर छुपाएँगी कहाँ आग शहरों की लपक कर आ रही है गाँव में ज़ख़्म-ए-नज़्ज़ारा हैं जिस्मों की बरहना टहनियाँ ऐसे पतझड़ में खिलेंगे फूल क्या आशाओं में क्या कहूँ तूल-ए-शब-ए-ग़म पल में सदियाँ ढल गईं वक़्त यूँ गुज़रा कि जैसे आबले हों पाँव में ज़िंदगी में ऐसी कुछ तुग़्यानीयाँ आती रहीं बह गईं हैं उम्र भर की नेकियाँ दरियाओं में जलते मौसम में कोई फ़ारिग़ नज़र आता नहीं डूबता जाता है हर इक पेड़ अपनी छाँव में