दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को गुज़रे कई फ़िराक़ किसी के विसाल को रिश्ता ब-जुज़-गुमान न था ज़िंदगी से कुछ मैं ने फ़क़त क़यास किया माह ओ साल को शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम सूरत न दे यक़ीन की इस एहतिमाल को तर्ग़ीब का है वुसअत-ए-इम्काँ पे इन्हिसार रम-ख़ुर्दगी सिखाता है सहरा ग़ज़ाल को 'सहबा' सदा बहार है ये गुलसिन-ए-फ़न मुमकिन नहीं ज़वाल सुख़न के कमाल को