दोश पे अपने बार उठाए फिरते हैं हम कितने आज़ार उठाए फिरते हैं प्रेम नगर के बासी काँटों के बन में फूलों का अम्बार उठाए फिरते हैं तन के उजले मन के काले हैं जो लोग नफ़रत की दीवार उठाए फिरते हैं दीन-धरम के नाम पे क़ौमों के दुश्मन दो-धारी तलवार उठाए फिरते हैं 'नूर' मिरे आँगन में फिर वो रात गए पायल की झंकार उठाए फिरते हैं