दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं ग़ालिबन मेरे इंतिज़ार में हैं वो न होते मिरा वजूद न था मैं न होता वो किस शुमार में हैं शाख़-ए-इदराक में जो काँटे हैं फूल बनने के इंतिज़ार में हैं क्या सबब है कि एक मौसम में कुछ ख़िज़ाँ में हैं कुछ बहार में हैं एक शाइ'र बना ख़ुदा-ए-सुख़न जो रसूल-ए-सुख़न थे ग़ार में हैं ख़ार समझो न तुम उन्हें हरगिज़ साँप के दाँत गुल के हार में हैं शिम्र-ओ-फ़िरऔन कब हुए मरहूम उन के औसाफ़ रिश्ते-दार में हैं सब के सब काविश-ए-फ़िरिश्ता-खिसाल ऐब जितने हैं ख़ाकसार में हैं