डूबने वाला था दिन शाम थी होने वाली यूँ लगा मिरी कोई चीज़ थी खोने वाली सुब्ह के साथ हुई ख़त्म मिरी रात की गश्त रह गई एक गली शहर के कोने वाली कितना शफ़्फ़ाफ़ चमकता हुआ दिन था जिस की धूप थी प्यार की बारिश में भिगोने वाली किसी ना-दीदा घड़ी के लिए तय्यार था मैं ऐसी चुप थी कि कोई बात थी होने वाली ज़िंदगी मैली हुई गर्द-ए-मह-ओ-साल के साथ इक जगह छोड़ के है पूरी ये धोने वाली लाख बंजर हो ज़मीं फिर भी पनप जाएगी आख़िरी शय जो मिरे पास है बोने वाली इतनी मसरूफ़ है हँगामा-ए-बे-मसरफ़ में सुब्ह से पहले नहीं रात ये सोने वाली ज़िंदगी और ही होती है बसर करने को तेरी मेरी है फ़क़त बोझ को ढोने वाली किस जगह होगा मुझे जोड़ने वाला लम्हा वो घड़ी ज़ात के दानों को पिरोने वाली सारा सब्ज़ा था किसी मख़मली बिस्तर की तरह और ज़मीं घास के तख़्ते पे थी सोने वाली यूँ तो हर बात यहाँ होती रहेगी लेकिन तिरी ख़्वाहिश के मुताबिक़ नहीं होने वाली बात इस बार घरों तक नहीं रहनी 'शाहीं' अब के तुग़्यानी है शहरों को डुबोने वाली