डूबते जाते थे तारे बादबाँ रौशन हुआ पौ फटी ख़ुर्शीद उभरा आसमाँ रौशन हुआ रात कहती थी दियों की टिमटिमाहट कब तलक तीरगी सोई ज़मीर-ए-कुन-फ़काँ रौशन हुआ बे-कसी के दर्द ने लौ दी जल उट्ठा इक चराग़ रफ़्ता रफ़्ता उस से फिर सारा जहाँ रौशन हुआ जब सहारा आख़िरी टूटा तो हिम्मत जाग उठी बुझ गए शम्स-ओ-क़मर अपना मकाँ रौशन हुआ बीसियों झूटे ख़ुदा थे एक हारून-अल-रशीद आँधियाँ उठीं चराग़-ए-पासबाँ रौशन हुआ राख में अब तक सुलगती हैं दबी चिंगारियाँ बाग़ सारा जल बुझा लेकिन कहाँ रौशन हुआ चढ़ रही थी फ़ित्ना-ए-इमरोज़ की देबी पे भेंट शाहिद-ए-फ़र्दा का चेहरा ना-गहाँ रौशन हुआ