दुख तो दुख थे जो इधर बहर-ए-अमाँ आ निकले आप इस दिल के ख़राबे में कहाँ आ निकले इक ज़रा निकले तो आवाज़ दबा दें अपनी क्या करें चुप का अगर उस की ज़बाँ आ निकले जाने कब क़हक़हे रोना पड़ें अहबाब के साथ जाने अतराफ़ में कब शहर-ए-फ़ुग़ाँ आ निकले कुछ तो दिल-जूई चले धूप-नुमा ख़्वाहिश की दश्त में तज़किरा-ए-अब्र-ए-रवाँ आ निकले मेरे क़दमों से करे जूँही मसाफ़त आग़ाज़ ज़ाद-ए-रह में से उसी वक़्त ज़ियाँ आ निकले देखते देखते सूरज का लहू शाम हुई शब के आलाम थे जितने भी ब-जाँ आ निकले अपने सहरा से बंधे प्यास के मारे हुए हम मुंतज़िर हैं कि इधर कोई कुआँ आ निकले क्या मैं फिर भी न करूँ आग सुलगने का गुमाँ जब मिरी साँस की नाली में धुआँ आ निकले आईने बेच के अब चलते बनो 'ख़ावर' तुम इस से पहले कि कोई संग-ए-गिराँ आ निकले