दुखों की झील नहीं है तो ज़िंदगी क्या है हर एक आँख में हर-वक़्त ये नमी क्या है लटक रही हूँ मैं अब तक सलीब पर उस की हयात मुझ से भला और चाहती क्या है चहकती शाम तो कतरा के मुझ से गुज़री थी गुज़र गई है तो मुड़ मुड़ के देखती क्या है ख़ुशी से अपनी अना में हैं क़ैद हम ऐसे हमें ख़बर भी नहीं है के ज़िंदगी क्या है तुम्हारे लम्स का मुझ में अगर ख़ुमार नहीं तो मेरी जागती आँखों में नींद सी क्या है