दुखों की वादी में हर शाम का गुज़र ऐसे तुम्हारी याद का फैला हो धुँदलका जैसे सितम-ज़रीफ़ बता किस तरह मनाऊँ तुझे कि जुज़ तिरे मैं गुज़ारूँगी ज़िंदगी कैसे रुतों में आया नज़र प्यार का रचाओ मुझे तिरे वजूद को ख़ुद में समो लिया ऐसे भरी बहार जो गुज़री तो फिर गुज़रती गई मगर हमें तो ख़बर ही न हो सकी जैसे मोहब्बतों के जज़ीरों के ख़्वाब बाक़ी हैं वगर्ना दिन के उजाले भी राख हैं जैसे