दुनिया भी अजब क़ाफ़िला-ए-तिश्ना-लबाँ है हर शख़्स सराबों के तआ'क़ुब में रवाँ है तन्हा तिरी महफ़िल में नहीं हूँ कि मिरे साथ इक लज़्ज़त-ए-पाबंदी-ए-इज़हार-ओ-बयाँ है हक़ बात पे है ज़हर भरे जाम की ताज़ीर ऐ ग़ैरत-ए-ईमाँ लब-ए-सुक़रात कहाँ है खेतों में समाती नहीं फूली हुई सरसों बाग़ों में अभी तक वही हंगाम-ए-ख़िज़ाँ है एहसास मिरा हिज्र-गज़ीदा है अज़ल से क्या मुझ को अगर कोई क़रीब-ए-रग-ए-जाँ है जो दल के समुंदर से उभरता है यक़ीं है जो ज़ेहन के साहिल से गुज़रता है गुमाँ है फूलों पे घटाओं के तो साए नहीं 'अनवर' आवारा-ए-गुलज़ार नशेमन का धुआँ है