दुनिया का ये एज़ाज़ ये इनआम बहुत है मुझ पर तिरे इकराम का इल्ज़ाम बहुत है इस उम्र में ये मोड़ अचानक ये मुलाक़ात ख़ुश-गाम अभी गर्दिश-ए-अय्याम बहुत है बुझती हुई सुब्हें हों कि जलती हुई रातें तुझ से ये मुलाक़ात सर-ए-शाम बहुत है मैं मर्हमत-ए-ख़ास का ख़्वाहाँ भी नहीं हूँ मेरे लिए तेरी निगह-ए-आम बहुत है कमयाब किया है उसे बाज़ार-ए-तलब ने हम थे तो वो अर्ज़ां था पर अब दाम बहुत है उस घर की बदौलत मिरे शेरों को है शोहरत वो घर कि जो इस शहर में बदनाम बहुत है