दुनिया के कुछ न कुछ तो तलबगार से रहे हम अपनी ही नज़र में ख़ता-कार से रहे इक मरहला था ख़त्म हुआ दश्त-ए-ख़्वाब का फिर उम्र भर जहाँ रहे बे-ज़ार से रहे जुरअत किसी ने वादी-ए-वहशत की फिर न की हम ख़स्ता-हाल आहनी दीवार से रहे इक अक्स है जो साथ नहीं छोड़ता कभी हम ता-हयात आईना-बरदार से रहे हर सुब्ह अपने घर में उसी वक़्त जागना आज़ाद लोग भी तो गिरफ़्तार से रहे कार-ए-अज़ीम कब कोई क़ुदरत में था 'सुहैल' हम बस उफ़ुक़ पे सुब्ह के आसार से रहे