दुनिया से तन को ढाँप क़यामत से जान को दो चादरें बहुत हैं तिरी आन-बान को इक मैं ही रह गया हूँ किए सर को बार-ए-दोश क्या पूछते हो भाई मिरे ख़ानदान को जिस दिन से अपने चाक-ए-गरेबाँ का शोर है ताले लगा गए हैं रफ़ूगर दुकान को फ़िलहाल दिल पे दिल तो लिए जा रहे हो तुम और जो हिसाब भूल गया कल-कलान को दिल में से चुन के हम भी कोई ग़ुंचा ऐ नसीम भेजेंगे तेरे हाथ कभी गुलसितान को मशग़ूल हैं सफ़ाई-ओ-तौसी-ए-दिल में हम तंगी न इस मकान में हो मेहमान को