दूर के जल्वों की शादाबी का दिल-दादा न हो तू जिसे दरिया समझता है कहीं सहरा न हो आइने को एक मुद्दत हो गई देखे हुए वो जबीन-ए-शौक़ जिस पर सोच का साया न हो वो भी मेरे पास से गुज़रा उसी अंदाज़ से मैं ने भी ज़ाहिर किया जैसे उसे देखा न हो इस तरफ़ क्या तुर्फ़ा आलम है ये खुल सकता नहीं आदमी का क़द अगर दीवार से ऊँचा न हो मस्लहत चाहे रहूँ डाले तसन्नो का नक़ाब दोस्ती की माँग चेहरे पर कोई पर्दा न हो धूप से घबरा के बैठा तो है लेकिन देख ले ये किसी गिरती हुई दीवार का साया न हो क़हक़हों की छाँव में इक शख़्स बैठा है उदास वो भी मेरी ही तरह इस भीड़ में तन्हा न हो 'साबिर' इन मानूस गलियों से तो दिल उकता गया आ चलें इस शहर में पहले जैसे देखा न हो