दूर तक फैल गई सब की ज़बाँ तक पहुँची बात तब जा के मिरे वहम-ओ-गुमाँ तक पहुँची प्यास ने मुझ को तो बस मार ही डाला था मगर कशिश-ए-ज़ीस्त मिरी आब-ए-रवाँ तक पहुँची ख़ाक जब ख़ाक से टकराई तो इक शोर उठा जान जब जान से गुज़री तो अमाँ तक पहुँची धड़कनो में तिरी आमद से वो झंकार हुई लब खुले भी नहीं और बात बयाँ तक पहुँची मेरी आँखों से मिरे ख़्वाब चुराने वाला पूछता है कि मिरी नींद कहाँ तक पहुँची कोई तो शय थी 'अलीना' जो इन आँखों से चली दिल में पैवस्त हुई और रग-ए-जाँ तक पहुँची