दूर तक सब्ज़ा कहीं है और न कोई साएबाँ ज़ेर-ए-पा तपती ज़मीं है सर पे जलता आसमाँ जैसे दो मुल्कों को इक सरहद अलग करती हुई वक़्त ने ख़त ऐसा खींचा मेरे उस के दरमियाँ अब के सैलाब-ए-बला सब कुछ बहा कर ले गया अब न ख़्वाबों के जज़ीरे हैं न दिल की कश्तियाँ लुत्फ़ उन का अब हुआ तो है मगर कुछ इस तरह जैसे सहरा से गुज़र जाए कोई अब्र-ए-रवाँ मुनहसिर है ऐसी इक बुनियाद पर उस का यक़ीं जिस तरह दोश-ए-हवा पर कोई तिनकों का मकाँ बे-ज़बानों से ख़मोशी का गिला कैसा कि जब सो गए लफ़्ज़ों की चादर तान कर अहल-ए-ज़बाँ ये सफ़र कैसा है 'मोहसिन' जितना बढ़ते जाइए बढ़ती जाएँ उतनी ही मंज़िल-ब-मंज़िल दूरियाँ