दुरून-ए-चश्म नई चश्म-ए-तर बनाना है कि आँख को ही मोहब्बत का घर बनाना है हमारे ग़म का मुदावा न कर सके ये दिन सुकूत-ए-शब को ही अब चारागर बनाना है ऐ 'इश्क़ और गुज़ार अपने इम्तिहाँ से हमें ये ज़ीस्त और अभी कारगर बनाना है अयाँ हो हिज्र का ग़म ऐसा एक नक़्शे में बना न पाया अभी तक मगर बनाना है वो जिस का नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है रहगुज़र 'आमिर' उसी के 'इश्क़ को ज़ाद-ए-सफ़र बनाना है