ऐ इंतिज़ार-ए-सुब्ह-ए-तमन्ना ये क्या हुआ आता है अब ख़याल भी तेरा थका हुआ पहचान भी सकी न मिरी ज़िंदगी मुझे इतनी रवा-रवी में कहीं सामना हुआ चमका सके न तीरा-नसीबों की रात को हमराज़ हैं तिरे मह-ओ-अंजुम तो क्या हुआ मुझ से कहीं मिला ग़म-ए-दौराँ तो इस तरह जैसे मिरी तरह से है वो भी थका हुआ 'जामी' फ़ज़ा-ए-मौसम-ए-गुल यूँ उदास है जैसे कहीं क़रीब कोई हादसा हुआ