ऐ मौजा-ए-सराब तू फांकेगी कितनी ख़ाक मुझ को डुबोने के लिए छानेगी कितनी ख़ाक बच जाए मुश्त-भर सही दफ़नाने के लिए मौज-ए-बला-ए-इश्क़ में डूबेगी कितनी ख़ाक कितने हसीन ख़्वाब तरसते हैं दीद को आईना-ए-जमाल पे बैठेगी कितनी ख़ाक जिस के दर-ओ-दरीचा-ए-दीवार हैं तबाह इस ख़ाना-ए--सुकूत को पूछेगी कितनी ख़ाक कोई तो चाहिए हद-ख़ुश-फ़हमी-ए-फ़रेब दुनिया तू मेरी आँख में झोंकेगी कितनी ख़ाक क्यूँ झुक गई है बोझ से तू आसमान के अब सर उठा ऐ ज़िंदगी चाटेगी कितनी ख़ाक मालन गुलाब दफ़्न भी गुल-दान में हुए भर भर के मुट्ठियाँ अभी डालेगी कितनी ख़ाक कब तक 'शफ़क़' चलेगी ये आँधी मलाल की मेरे उदास बाम पे बरसेगी कितनी ख़ाक