ऐ रश्क-ए-महर कोई भी तुझ सा हसीं नहीं ज़ोहरा नहीं परी नहीं माह-ए-मुबीं नहीं तन्हा नहीं हूँ क़ब्र में अरमाँ वस्ल क्या हमदम नहीं रफ़ीक़ नहीं हम-नशीं नहीं आ कर चमन में आह-ए-ख़िज़ाँ ने ये क्या किया बेला नहीं गुलाब नहीं या समयँ नहीं ऐसा कोई नहीं जो तिरे दर्द-ए-हिज्र से ग़मगीं नहीं हज़ीं नहीं अंदोहगीं नहीं उर्यानी-ए-बदन है अजब मुख़्तसर लिबास दामन नहीं है जेब नहीं आस्तीं नहीं शर्मिंदा क्या दहान-ओ-रुख़-ओ-ज़ुल्फ़-ए-यार से ग़ुंचा नहीं गुलाब नहीं मुश्क-चीं नहीं बढ़ कर मिठास में लब-ए-शीरीं यार से मिस्री नहीं है क़ंद नहीं अंग्बीं नहीं जोश-ए-जुनूँ में अब तिरे बीमार-ए-इश्क़ में दानिश नहीं ख़िरद नहीं रा-ए-मतीं नहीं इंसान है जहाँ में वही आदमी कि जो ज़ालिम नहीं हरीस नहीं ऐब-बीं नहीं ज़रदार और मलक हैं अफ़्सोस हिन्द में चाँदी नहीं तला नहीं दुर्र-ए-समीं नहीं क्यूँकर कलाम हो मिरा बे-मिस्ल ‘बर्क़’ में 'उर्फ़ी' नहीं 'कमाल' नहीं 'बिन-मुबीं' नहीं