एहतियातन उसे छुआ नहीं है आदमी है कोई ख़ुदा नहीं है दश्त में आते जाते रहते हैं ये हमारे लिए नया नहीं है तुम समझते हो नाख़ुदा ख़ुद को तुम पे दरिया अभी खुला नहीं है जिस का हल सोचने में वक़्त लगे वो मोहब्बत है मसअला नहीं है बाग़ पर शेर कहने वालों का एक मिस्रा हरा-भरा नहीं है रेत ही रेत है तह-ए-दरिया यानी सहरा अभी मिरा नहीं है आओ चलते हैं अब ख़ला की तरफ़ सुन रहे हैं वहाँ ख़ला नहीं है