ईद का दिन हुआ करती थी हर इक रात मुझे हाए वो वक़्त कि रास आती थी बरसात मुझे कुछ भी हो तौबा मोहब्बत से न होगी वाइज़ जान-ओ-दिल दोनों से प्यारी है मिरी बात मुझे जगमगाती तिरी आँखों की क़सम फ़ुर्क़त में बड़े दुख देती है ये तारों भरी रात मुझे दिल ने उन को भी किया चश्म-ए-मुरव्वत के सुपुर्द आप से थे भी जो कुछ शिकवा शिकायात मुझे दुख भरा हूँ मिरे नालों से हज़र कर नासेह बुरी मालूम न हो जाए कोई बात मुझे जितने दिन ज़ीस्त के बाक़ी हैं निछावर कर दूँ फिर जो मिल जाए जवानी की कोई रात मुझे अब्र-ए-बाराँ के मज़े लूटूँ मैं क्यूँकर 'मंज़र' दम भी लेने दे मिरी आँखों की बरसात मुझे