किसे ख़याल था ऐसी भी साअ'तें होंगी कि मेरे नाम से भी तुझ को वहशतें होंगी सज़ा-ए-मर्ग की सूरत विसाल गुज़रा था बिछड़ गए हैं तो क्या क्या क़यामतें होंगी जुदाइयों में ज़माने ने क्या सुलूक किया कभी दोबारा मिले तो हिकायतें होंगी ख़ुशा कि अपनी वफ़ा फ़ासलों की नज़्र हुई हमारे बा'द ज़मीं पर रिफाक़तें होंगी उजड़ गया हूँ मगर हौसले सलामत हैं कि एक दिन तुझे शायद नदामतें होंगी